Wednesday, January 23, 2019

चौराहा

एक संवाद ---(दिल्ली का कोई भी चौराहा)
चालक-एक झंडा देना ...
बच्चा- दस रूपए …
चालक- अबे लूट मचा रखी है…पांच में देगा …
बच्चा- साल में दो ही दिन तो होते हैं झंडा बेचने के…26 जनवरी और 15 अगस्त
चालक- अबे भाग जा …
इसी बीच दूसरा चालक - एक झंडा देना 
बच्चा- दस रूपए 
(चालक ने एक नोट निकाला बच्चे को दिया और कार आगे निकल गई )
बच्चे ने देखा उसके हाथों में सौ का नोट है …
वो खुश होता इससे पहले एक झटके से वो नोट किसी और के हाथ में था …
(ये ठेकेदार था जिसके लिए झंडा महज एक बिज़नस है)
चौराहे की बत्तियां जल बुझ रही है …
क़ाश आज कोई ग्रीन सिग्नल इस छोटू के लिए भी हो…
कोइ खिड़की ... 
कोई रोशनदान …
कोई रास्ता …
या इंतज़ार अगले साल का ...

- अशोक कुमार अनुराग

सागर मंथन

औरत को मार डालने का सुख असीम होता है
टुकड़ों में काट-काट कर
पीस कर, दबोच कर, नोच कर
घिस कर, छील कर
उससे भी ज्यादा सुख नसीब होता है
जब वो मरती है घुलकर
चुप रहकर
शांत दिखकर
उदासी ठेलकर...
प्रसव वेदना झेलकर...
तब माधव और घीसू हिसाब लगा रहे होते है आलू का...
प्रेमचंद की कहानी कफ़न के वो तो पात्र थे...
लेकिन हमारे ही आस पास हर दिन...
माधव और घीसू नई कहानी गढ़ रहे होते हैं...
लेकिन अब प्रेमचंद नहीं हैं...
अक्सर संभ्रांत लोगों की पार्टी में जब...
नशा अपने उत्कर्ष पर होता है...
तब भी...थरथराती है जमीन...
और आसमान भी ओढ़े रहता रहता है
शर्मसार घूंघट...
निचोड़े गए तन से बाहर आई औरत
फिर सिर्फ
एक औरत नहीं होती...
सागर मंथन करना होगा एक बार और....
करना ही होगा.....ये जानने के लिए...
कि सारा विष तो शिव पी गए...
फिर इतना ज़हर इंसानों में कहाँ से आया...


- अशोक कुमार अनुराग

Sunday, January 20, 2019

संवाद

किसी से संवाद नहीं होता
समय के आगे थकी इस औरत का...
गाँव में जब तक था ...
लगता था सारा मेहनत यहीं की औरते करती हैं...
दो चार बाल्टी पानी कभी कुएं से खीच दिया,
तो पत्नी मुस्कुरा देती थी...
माँ कहती थी ...बउआ थक जाओगे...
और एक दिन...
पलायन कर गया था ...
कुछ ख़ुशी के लिए...
या फिर... 
छोडिये विवाद का विषय बन जायेगा...
मेरे मीडिया के दोस्त मुझसे ही सवाल करेंगे...
शहर आ कर अच्छा लगा...
यहाँ लाल किला था...
वहां गोल घर...
यहाँ नेशनल म्यूजियम है...
वहां जादूघर...
यहाँ...
नींद नहीं है...
वहां...
घोडे बेच कर सोता था...
यहाँ...
Lipid profile के टेस्ट हैं...
वहां कभी इसका नाम ही नहीं सुना था ...
यहाँ...
पसीना नहीं बहता...
वहां पसीने से नहा जाता था....
यहाँ... यहाँ... यहाँ...
देख रहा हूँ...
मेरी पत्नी पहले से ज्यादा थकी नज़र आती है...
माँ की उम्र ज्यादा है...
ये बहाना नहीं चलेगा...
यही सच है...
विवशताओं के झूठ का...
किसी से संवाद नहीं होता
समय के आगे थकी इस औरत का...

- अशोक कुमार अनुराग 
 पतझड़ में गिरे पत्ते

चलो यूँ ही ख़ामोश 
के पतझड़ में गिरे पत्ते 
गहरी नींद में हैं 
लफ़्ज़ों का खज़ाना यूँ ही नहीं जमा किया मैंने 
गाँव के मचान पर
टूटे नाव की ओट में 
जो डूब गई थी कभी 
इश्तेहार तब आज की तरह नहीं था 
भोमा बजा बजा कर बैलगाड़ी से बटते थे इश्तेहार 
घर की कच्ची दीवारों पर
स्लेट वाली पेंसिल के निशान अब भी होंगे 
जुगनू लालटेन ढिबरी आज भी जलते होंगे 
सुना है बिजली के खम्भे गड़े थे 
तार भी था उन पर 
लेकिन बिजली एक बार आकर गई 
फिर नहीं आई 
अगर ये सब इत्तेफ़ाक़ है 
तो समेट लेना होगा उन यादों को 
क्यूंकि कौन सुनता है मेरी यहां
लोग कहते हैं 
मैं ख़ुद से बात करता हूँ....

-अशोक कुमार अनुराग 

फुदकती दिशायें

कहतें हैं दलदल यहाँ कभी था ही नहीं
मखमली घास थी हर तरफ़
बच्चे ऊधम मचाते रहते थे हर पल 
दिशायें फुदकती रहती थीं बच्चों के साथ 
क्या पता किस ओर से पतंग उड़ चले 
तब हील वाली चप्पलें नहीं थी हमारे पास 
लकड़ी का चप्पल होता था तब 
खड़ाऊ तो नहीं लेकिन उससे मिलता जुलता 
टायर की पट्टी लगी होती थी मज़बूत पकड़ के लिए 
फिर एक दिन जाना पड़ा सब छोड़ कर 
जब लौटा तो सब वैसा नहीं था 
अब दलदल थी हर तरफ़ 
अब लकड़ी की चप्पल यहाँ न बनती हैं न बिकती हैं 
अब हील वाली चप्पल या रेन बूट पहनना होगा
लेकिन ये कौन बताएगा 
ये दलदल कैसे बना ?

- अशोक कुमार अनुराग 

थोड़ा झूठ थोड़ा धोखा

आवाज़ की कतरन तुम समेट लो,
तुम झूठ सिलते हो धोखा बुनते हो,
मैं थेगली लगे सपनों में ख़ुश कैसे रहूँ,
चलो मिलकर बेचते हैं थोड़ा झूठ थोड़ा धोखा


- अशोक अनुराग

कलम

दो पैसे की खरीदी है रोशनाई की गोटी 
पानी के साथ मिलाया है उसे 
कांच के दवात में 
सरकंडे को छिल कर कलम है बनाया 
धागे से सिली कॉपी फटे बस्ते में 
लिखना है अ से आम
ट से टमटम
रोशनाई की गोटी अब कहा मिलती है ?
कही मिले तो बताना
मैंने धागे से सिली कॉपी
संभाल रखी है
और सरकंडे वाली कलम भी

अशोक अनुराग